Thursday, June 10, 2010

शाकाहार का प्रोपगैंडा

अक्सर देखा गया है कि भारतीय संस्कृति के जितने भी विद्वान, चिंतक और सुधारक हुए हैं, उन सभी ने मांसाहार का प्रबल विरोध और कठोर “ाब्दों में निंदा की है। उनमें चाहे स्वामी दयानंद सरस्वती हो, स्वामी विवेकानंद हो, श्रीराम “ार्मा आचार्य हो, आषाराम बापू हो, श्री रविषंकर हो या योग गुरु रामदेव हो। विडंबना देखिए कि मांसाहार का न वेद निशेध करते हैं न मनुस्मृति। न रामायण, महाभारत और चरक संहिता में मांसाहार का निशेध है। न हमारा संविधान मांसाहार का निशेध करता है और न ही हमारा विज्ञान मांसाहार का विरोध करता है फिर हमारे गुरु, विद्वान और सुधारक मांसाहार का प्रबल विरोध आख़िर क्यों करते हैं ?
माह अक्टूबर 2009 की मासिक पत्रिका ‘अखंड ज्योति’ के एक विशय ‘षाकाहार ही है प्राकृतिक आहार’ में डाइट एंड फूड नामक कृति के लेखक वैज्ञानिक मनीशी डॉक्टर हेग के षब्दों को लिखा गया है - ‘‘षाकाहार से “ाक्ति उत्पन्न होती है और मांस खाने से उत्तेजना बढ़ती है।’’ यही कारण है कि समस्त धर्मग्रंथों ने एक स्वर से मांसाहार का निशेध किया है और इस बुराई पर अड़े रहने वालों को कटु “ाब्दों में धिक्कारा है। हिंदू धर्मग्रंथों के अतिरिक्त बाइबिल, कुरआन आदि सभी धर्मग्रंथों ने मांसाहार को हेय ठहराया है और निरीह प्रजातियों की हत्या को घोर दंडनीय अपराध कहा है।’’ उक्त “ाब्द एक वैज्ञानिक मनीशी और डॉक्टर के हैं। जिन लोगों ने हिंदू “ाास्त्रों के अलावा बाइबिल और कुरआन का भी अध्ययन किया है वे लोग बखूबी अंदाजा लगा सकते हैं कि उक्त मनीशी को “ाास्त्रों का कितना ज्ञान था। उक्त मनीशी की “ाास्त्रों के प्रति अनभिज्ञता तो स्पश्ट हो ही रही है, यह वैज्ञानिक विज्ञान के तथ्यों और सत्यों से भी कतई अनभिज्ञ था।
पत्रिका में आगे विष्वविख्यात दार्षनिक पैथागोरस के “ाब्दों में इस प्रकार लिखा है - ‘‘ऐ मौत के फंदे में उलझे हुए इंसान ! अपनी तष्तरियों को मांस से सजाने के लिए जीवों की हत्या करना छोड़ दे। जो व्यक्ति भोले-भाले प्राणियों की गरदन पर छुरी चलवाता है, उनका करुण क्रंदन सुनता है, जो अपने हाथों पाले हुए पषु-पक्षियों की हत्या करके अपनी मौज मनाता है, उसे अत्यंत तुच्छ स्तर का व्यक्ति समझना चाहिए। जो पषुओं का मांस खा सकता है, वह किसी दिन मनुश्यों का भी खून पी सकता है।’’
योग गुरु रामदेव ने अपने योग षिविर को संबोधित करते हुए कहा कि अगर कोई मुझसे कहे कि एक अंडा खा लो, हम तुम्हें सारी दुनिया का मालिक बना देंगे, तो मैं फिर भी अंडा खाना पसंद नहीं करूंगा। लोग कहते हैं कि अंडे में प्रोटीन होता है, मैं कहता हूँ कि अंडे में प्रोटीन नहीं बल्कि पौट्टी (स्ंजतपदम) होती है।’’ पाठक अंदाजा लगा सकते हैं कि योग गुरु रामदेव की धारणा कितनी वैज्ञानिक और तर्कसंगत है। यहाँ यह भी विचारणीय है कि गुरु रामदेव जी गाय के मूत्र को रोगनाषक औशधि बताते हैं।
अखंड ज्योति में “ाास्त्रों के नाम से कहा गया है कि ‘अन्न अर्थात् आहार के अनुसार ही मन बनता है। यह उक्ति जो कही गयी है उचित प्रतीत होती है। मगर मांसाहार से जोड़कर जो इसकी व्याख्या की गयी है वह कतई असंगत है। इसमें मांसाहार का कही निशेध या विरोध नहीं है। इस उक्ति का मतलब तो यह है कि जो आहार हम खाये, वह “ाुद्ध, सात्विक और स्वच्छ होना चाहिए। वह मेहनत और ईमानदारी से कमाया हुआ होना चाहिए, न कि लूट खसोट, छीना झपटी, धोखाधड़ी, रिष्वत और ब्याज आदि का। हमारी इस नेक और खून-पसीने की कमाई में गरीब, असहाय, बीमार आदि का भी हिस्सा होना चाहिए। अगर हम चोरी का, लूट-खसोट का, बेईमानी का अन्न खायंेगे तो उसका प्रभाव अवष्य हमारे मन मस्तिश्क पर पड़ेगा। लेख में जो कहा गया है कि मांस खाने से मनुश्य के अन्दर बर्बरता और क्रूरता बढ़ती है, यह तथ्य बिल्कुल अतार्किक और अव्यावहारिक है। प्रायः देखने में आता है कि हिंदू समाज में मांसाहार का विरोध पाया जाता है, मगर इस समाज में भ्रूण हत्या की दर अन्य कौमों से कम नहीं है। इससे अधिक क्रूरता और बर्बरता की बात और क्या होगी कि एक औरत अपने पेट के बच्चे तक को पैसे देकर कत्ल (।इवतजपवद) करा रही है। क्या यह क्रूरता मांसाहार से उत्पन्न प्रवृत्ति की देन है ? 31 अक्टूबर सन् 1984 को भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अपने ही सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गई। इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद पूरी सिख कौम को दोशी मानते हुए लगभग 4000 सिखों को बेदर्दी से कत्ल किया गया। पूरे के पूरे परिवारों को जिंदा जला दिया गया। यहां सवाल यह पैदा होता है कि क्या यह सब करने वाले मांसाहारी थे ?
2002 में गोधरा कांड के बाद गुजरात में मुसलमानों पर जो जुल्म हुआ, वहां जो बर्बरता और क्रूरता का नंगा नाच हुआ, क्या वे सब करने वाले मांसाहारी थे ? कुछ हिंदू विद्वान और गुरु यह भी प्रचारित कर रहे हैं कि ‘‘ग्लोबल वार्मिंग का एक कारण मांसभक्षण भी है।’’ यह तथ्य भी विज्ञान और प्रकृति के बिल्कुल विपरीत है। वास्तविकता तो यह है कि स्रश्टा ने प्राकृतिक संतुलन के लिए एक जीव को दूसरे जीव पर निर्भर बनाया है। मांसभक्षण प्रकृति की एक अनिवार्य क्रिया है। भोजन को मांसाहार और “ााकाहार दो हिस्सों में बांटना एक धोखा है, अंधविष्वास है। आज विज्ञान के युग में, जबकि हमें प्रत्येक जीव और वनस्पति की हिस्ट्री और कैमिस्ट्री मालूम है, फिर भी आज हमारे तथाकथित गुरु अपने धर्म“ाास्त्रों, वैज्ञानिक सत्यों और प्राकृतिक व्यवस्था का विरोध न जाने क्यों कर रहे हैं ? आज हम सम्पूर्ण वनस्पति जगत, प्राणि जगत और विषाल समुंद्री जगत की वास्तविकता घर बैठे देख रहे हैं इसलिए यह बात आसानी से समझ सकते हैं कि अगर विष्व में मांसाहार पर 100 प्रतिषत प्रतिबंध लगा दिया जाए तो क्या हम 700 करोड़ लोगों की आहार पूर्ति केवल अनाज से कर पायेंगे ? हमारी सम्पूर्ण पृथ्वी का 30 प्रतिषत थल और लगभग 70 प्रतिषत समुंद्र है। 30 प्रतिषत थल में भी पहाड़ है, रेगिस्तान है, वन खंड है, बंजर है, नदी-नाले हैं, आवास हैं, जो कृशि योग्य भूमि है वह अत्यंत ही कम है। इस कृशि योग्य भूमि से मानव जाति की आहार पूर्ति संभव नहीं है फिर आख़िर यह बात हमारी समझ में क्यों नहीं आती कि मांस भक्षण मानव जाति की आहार पूर्ति के लिए अपरिहार्य है। इसका हमारे पास अन्य कोई विकल्प नहीं है। अगर मांस भक्षण पर प्रतिबंध लगा दिया जाए तो अंदाजा लगाइए कि एक रोटी की कीमत क्या होगी ? मांस एक प्राकृतिक आहार है। मांस भक्षण का विरोध करना प्राकृतिक व्यवस्था के ख़िलाफ है। “ााकाहारवाद एक अप्राकृतिक धारणा है, इसे कभी पूर्णतया लागू ही नहीं किया जा सकता। आने वाले समय में तो कुछ ऐसा लगता है कि मनुश्य की आहार पूर्ति केवल समुंद्र (ैमं थ्ववक) से होगी और सच भी यही है कि अति विषाल समुंद्र ही हमारी आहार पूर्ति का मूल स्रोत है। जो “ााकाहारवादी ;म्गजतमउपेज टमहमजंतपंदपेउद्ध मांसाहार का पुरज़ोर विरोध कर रहे हैं, उन्हें अपनी रुढ़िवादी और मिथ्या धारणा पर पुनर्विचार करना चाहिए। प्राकृतिक सत्यों को झुठलाना स्वयं को अज्ञानी और अंधविष्वासी साबित करना है।
यहां मेरा उद्देष्य मांसाहार को प्रोत्साहित करना हरगिज़ नहीं है, जो खाना है खाये। यह समाज, राश्ट्र और विष्व की कोई ज्वलंत समस्या नहीं है। यहां मेरा उद्देष्य मात्र इतना है कि हम कोई ऐसा भ्रामक प्रचार न करें जिसका हमारे समाज पर निकट भविश्य में बुरा और प्रतिकूल प्रभाव पड़े।

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अहिंसा परमो धर्मः ?

‘योग सूत्र’ के प्रणेता महर्शि पतंजलि ने योग के आठ अंगों का वर्णन किया है। योग का पहला अंग ‘यम’ है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच को योग दर्षन में ‘यम’ कहा गया है।
‘अहिंसा सत्या स्तेय ब्रह्मचर्या परिग्रहा यमाः।’
(योग दर्षन, 2-30)
जैन मत में उक्त पाँचों को व्रत कहा गया है। अहिंसा जैन मत का मुख्य तत्व है। यहाँ अहिंसा का मतलब किसी प्राणी को बिना किसी उद्देष्य के नुकसान न पहुंचाना है। निश्प्रयोजन किसी प्राणी की हत्या करना या चोट पहुंचाना यहाँ तक कि क्लेष पहुंचाना एवं आत्मभाव पर आघात करना हिंसा है। निश्प्रयोजन किसी पेड़ की टहनियाँ तोड़ना भी हिंसा के अन्तर्गत आता है। मगर कुछ पंथों के प्रणेताओं ने हिंसा की मनमानी व्याख्या की है। ‘‘अहिंसा परमो धर्मः’ का नारा देने वालों का कहना है कि किसी भी प्रकार की हिंसा पाप है चाहे वह प्रयोजनीय हो या निश्प्रयोजनीय। उक्त नारे का मूल निहितार्थ मांस भक्षण को निशिद्ध व पाप ठहराना था। जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी के बाद महात्मा बुद्ध ने भी अहिंसा का उपदेष दिया।
गौतम बुद्ध का जन्म एक क्षत्रीय परिवार में 563 ई0पू0 लुम्बिनी नामक स्थान पर हुआ था। लुम्बिनी कपिलवस्तु के पड़ोस में है। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ श्रेश्ठतर जीवन मूल्यों की तलाष में 29 वर्श की आयु में घर से निकल गए। 6 वर्श तक सच्चाई की तलाष में भटकते हुए एक दिन उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ और वे सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बन गए। गौतम बुद्ध के बाद भारतीय चिंतन में एक तूफ़ान-सा आ गया था, क्योंकि गौतम बुद्ध का सीधा टकराव वैदिक ब्राह्मणों से था।
वैदिक ब्राह्मण यज्ञ को प्रथम और उत्तम वैदिक संस्कार समझते थे। यह आर्यों का मुख्य धार्मिक कृत्य था। पषु बलि यज्ञ का मुख्य अंग थी। पषु बलि को बहुत ही पुण्य का कर्तव्य समझा जाता था। गौतम बुद्ध ने जब देखा कि आर्य लोग यज्ञ में निरीह पषुओं की बलि चढ़ाते हैं, तो यह देखकर उनका हृदय विद्रोह से भर उठा। आर्य धर्म के विरूद्ध उठने वाली क्रांति का प्रमुख कारण वैदिक पुरोहितवाद और हिंसा पूर्ण कर्मकांड ही था।
ईसा से करीब 500 वर्श पहले गौतम बुद्ध ने वैदिक धर्म पर जो सबसे बड़ा आरोप लगाया था वह यह था कि, ‘‘पषु बलि का पुण्य कार्य और पापों के प्रायष्चित से क्या संबंध ? पषु बलि धर्माचरण नहीं जघन्य पाप व अपराध है ?’’
यह एक विडंबना ही है कि गौतम बुद्ध के करीब 2350 वर्श बाद आर्य समाज के संस्थापक, वेदों के प्रकांड पंडित स्वामी दयानंद सरस्वती ने इस्लाम पर जो सबसे बड़ा आरोप लगाया है वह यह है कि ‘‘यदि अल्लाह प्राणी मात्र के लिए दया रखता है तो पषु बलि का विधान क्यों कर धर्म-सम्मत हो सकता है ? पषु बलि धर्माचरण नहीं जघन्य पाप व अपराध है।’’ कैसी अजीब विडंबना है कि जो सवाल गौतम बुद्ध ने वैदिक ऋशियों से किया था, वही सवाल करीब 2350 वर्श बाद एक वैदिक महर्शि मुसलमानों से करता है। जो आरोप गौतम बुद्ध ने आर्य धर्म पर लगाया था, वही आरोप कई “ाताब्दियों बाद एक आर्य विद्वान इस्लाम पर लगाता है।
धर्म का संपादन मनुश्य द्वारा नहीं होता। धर्म सृश्टिकर्ता का विधान होता है। धर्म का मूल स्रोत आदमी नहीं, यह अति प्राकृतिक सत्ता है। यह भी विडंबना ही है कि गौतम बुद्ध ने ईष्वर के अस्तित्व का इंकार करके वैदिक धर्म को आरोपित किया था, मगर स्वामी दयानंद सरस्वती ने ईष्वर के अस्तित्व का इकरार करके इस्लाम को आरोपित किया है।
प्राचीन भारतीय समाज में पषु बलि के साथ-साथ नर बलि की भी एक सामान्य प्रक्रिया थी। यज्ञ-याग का समर्थन करने वाले वैदिक ग्रंथ इस बात के साक्षी हैं कि न केवल पषु बलि बल्कि नर बलि की प्रथा भी एक ठोस इतिहास का परिच्छेद है। यज्ञों में आदमियों, घोड़ों, बैलों, मेंढ़ों और बकरियों की बलि दी जाती थी। रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी मुख्य पुस्तक ‘‘संस्कृति के चार अध्याय’’ में लिखा है कि यज्ञ का सार पहले मनुश्य में था, फिर वह अष्व में चला गया, फिर गो में, फिर भेड़ में, फिर अजा में, इसके बाद यज्ञ में प्रतीकात्मक रूप में नारियल-चावल, जौ आदि का प्रयोग होने लगा। आज भी हिंदुओं के कुछ संप्रदाय पषु बलि में विष्वास रखते हैं।

वेदों के बाद अगर हम रामायण काल की बात करें तो यह तथ्य निर्विवाद रूप से सत्य है कि श्री राम षिकार खेलते थे। जब रावण द्वारा सीता का हरण किया गया, उस समय श्री राम हिरन का षिकार खेलने गए हुए थे। उक्त तथ्य के साथ इस तथ्य में भी कोई विवाद नहीं है कि श्रीमद्भागवतगीता के उपदेषक श्री कृश्ण की मृत्यु षिकार खेलते हुए हुई थी। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि क्या उक्त दोनों महापुरुश हिंसा की परिभाशा नहीं जानते थे ? क्या उनकी धारणाओं में जीव हत्या जघन्य पाप व अपराध नहीं थी ? क्या षिकार खेलना उनका मन बहलावा मात्र था ?
अगर हम उक्त सवाल पर विचार करते हुए यह मान लें कि पषु बलि और मांस भक्षण का विधान धर्मसम्मत नहीं हो सकता, क्योंकि ईष्वर अत्यंत दयालु और कृपालु है, तो फिर यहाँ यह सवाल भी पैदा हो जाता है कि जानवर, पषु, पक्षी आदि जीव हत्या और मांस भक्षण क्यों करते हैं। अगर अल्लाह की दयालुता का प्रमाण यही है कि वह जीव हत्या और मांस भक्षण की इजाजत कभी नहीं दे सकता तो फिर “ोर, बगुला, चमगादड़, छिपकली, मकड़ी, चींटी आदि जीवहत्या कर मांस क्यों खाते हैं ? क्या “ोर, चमगादड़ आदि ईष्वर की रचना नहीं है ?
“ोर को जंगल का राजा कहा जाता है, वह जानवरों पर इतनी बेदर्दी और बेरहमी से हमला करता है कि जानवर दहाड़ मारने लगता है। मांसाहारी चमगादड़ों की एक बस्ती में लगभग 2 करोड़ तक चमगादड़ें होती हैं। अगर चमगादड़ की एक बस्ती के एक रात के भोजन का अनुमान लगाये तो 2 करोड़ की एक बस्ती एक रात में करीब 2500 कुंतल कीड़ों, कीटों आदि को चट कर जाती हैं। अगर इन कीड़ों, कीटों की तादाद का अनुमान लगाया जाए तो यह तादाद करीब 1000 करोड़ से अधिक होती है। यह तो एक मामूली-सा उदाहरण मात्र है, यह दुनिया बहुत बड़ी है और इस जमीनी दुनिया से कहीं अधिक विस्तृत और विषाल तो समुद्री दुनिया है जहाँ एक जीव पूर्ण रूप से दूसरे जीव पर निर्भर है।
विष्व के मांस संबंधी आंकड़ों पर अगर हम एक सरसरी नज़र डालें तो आंकड़े बताते हैं कि प्रतिदिन 8 करोड़ मुर्गियां, 22 लाख सुअर, 13 लाख भेड़-बकरियां, 7 लाख गाय, करोड़ों मछलियां और अन्य पषु-पक्षी मनुश्य का लुकमा बन जाते हैं। कई देष तो ऐसे हैं जो पूर्ण रूप से मांस पर ही निर्भर हैं। अब अगर मांस भक्षण को पाप व अपराध मान लिया जाए तो न केवल मनुश्य का जीवन बल्कि सृश्टि का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। जीव-हत्या को पाप मानकर तो हम खेती-बाड़ी का काम भी नहीं कर सकते, क्योंकि खेत जोतने और काटने में तो बहुत अधिक जीव-हत्या होती है।
विज्ञान के अनुसार पषु-पक्षियों की भांति पेड़-पौधों में भी जीवन ;स्पमिद्ध है। अब जो लोग मांस भक्षण को पाप समझते हैं, क्या उनको इतनी-सी बात समझ में नहीं आती कि जब पेड़-पौधों में भी जीवन है तो फिर उनका भक्षण जीव-हत्या क्यों नहीं है? फिर मांस खाने और वनस्पति खाने में अंतर ही क्या है ? यहाँ अगर जीवन (स्पमि) और जीव (ैवनस) में भेद न माना जाए तो फिर मनुश्य भी पषु-पक्षी और पेड़-पौधों की श्रेणी में आ जाता है। जीव केवल मनुश्य में है इसलिए ही वह अन्यों से भिन्न और उत्तम है।
विज्ञान के अनुसार मनुश्य के एक बार के वीर्य (डंसम हमदमतंजपवद सिनपक) स्राव (क्पेबींतहम) में 2 करोड़ “ाुक्राणुओं (ैचमतउे) की हत्या होती है। मनुश्य जीवन में एक बार नहीं, बल्कि सैकड़ों बार वीर्य स्राव करता है। फिर मनुश्य भी एक नहीं करोड़ों हैं। अब अगर यह मान लिया जाए कि प्रत्येक “ाुक्राणु (ैचमतउ) एक जीव है, तो इससे बड़ी तादाद में जीव हत्या और कहां हो सकती है ? करोड़ों-अरबों जीव-हत्या करके एक बच्चा पैदा होता है। अब क्या जीव-हत्या और ‘‘अहिंसा परमों धर्मः’’ की धारणा तार्किक और विज्ञान सम्मत हो सकती है।
जहाँ-जहाँ जीवन है वहाँ-वहाँ जीव (ैवनस) हो यह ज़रूरी नहीं। वृद्धि-हृास, विकास जीवन (स्पमि) के लक्षण हैं जीव के नहीं। आत्मा वहीं है जहाँ कर्म भोग है और कर्म भोग वही हैं जहाँ विवेक (ॅपेकवउ) है। पषु आदि में विवेक नहीं है, अतः वहां आत्मा नहीं है। आत्मा नहीं है तो कर्म फल भोग भी नहीं है। आत्मा एक व्यक्तिगत अस्तित्व (प्दकपअपकनंस म्गपेजमदबम) है जबकि जीवन एक विष्वगत अस्तित्व (ब्वेउपब म्गपेजमदबम) है। पषु और वनस्पतियों में कोई व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं होता। अतः उसकी हत्या को जीव हत्या नहीं कहा जा सकता। जब पषु आदि में जीव (ैवनस) ही नहीं है, तो जीव-हत्या कैसी ? पषु आदि में सिर्फ और सिर्फ जीवन है, जीव नहीं। अतः पषु-पक्षी आदि के प्रयोजन हेतु उपयोग को हिंसा नहीं कहा जा सकता।

जीव हत्या और मांसाहार

‘सत्यार्थ प्रकाष’ में स्वामी जी ने न केवल मांसाहार का निशेध किया है बल्कि यह भी कहा है कि मांसाहारी मनुश्यों का संग करने व उनके हाथ का खाने से आर्यों को भी मांस खाने का पाप लगता है। यह भी लिखा है कि पषुओं को मारने वालों को सब मनुश्यों की हत्या करने वाला जानिए। (10-25) एक आर्य समाज के विद्वान से कुछ खास विशयों पर चर्चा हुई, उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारी अन्य सारी बातें मानने को तैयार हूँ मगर जीव हत्या कर मांस खाने को मैं धर्मषास्त्र व मानव प्रकृति के अनुकूल नहीं मानता। निरीह, मूक पषु-पक्षियों को काट कर खाना न केवल निंदित व निशिद्ध है, बल्कि जघन्य अपराध भी है।
उन्होंने यहां तक भी कहा कि जो कौमे पषुओं को ज़िब्ह करती हैं, वो कट्टर, बेदर्द और बेरहम हो जाती हैं और उन कौमों को फिर मनुश्यों को मारने व काटने में कोई दया व हिचक महसूस नहीं होती। मैंने उनसे पूछा कि जो लोग भ्रूण हत्या कर रहे हैं, अपनी ही निरीह, मूक व निपराध संतान की पेट में ही टुकड़े-टुकड़े कराकर निर्दयता के साथ हत्या करा रहे हैं क्या उनकी यह कट्टरता पषुओं को ज़िब्ह करने व मांस खाने का परिणाम हैं ? क्या इससे अधिक कट्टरता व बेरहमी कोई और हो सकती है ? क्या यह मनुश्य की बेदर्दी की पराकाश्ठा नहीं है ?
मैंने उनसे पूछा कि आप बताइए “ोर मांस क्यों खाता है ? उन्होंने कहा कि जानवरों में बुद्धि नहीं होती, उनको अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होता। अगर मनुश्य भी ऐसा ही करता है तो फिर उसमें व जानवरों में अंतर ही क्या रहा ? मैंने उनसे कहा कि हाथी मांस नहीं खाता तो क्या वह बुद्धिमान होता है ? उन्होंने दोबारा अपनी बात बड़ी करते हुए कहा कि मांस तामसी भोजन है, इसको खाने से बुद्धि भी तामसी हो जाती है, ‘‘जैसा खाये अन्न वैसा हो जाए मन’’ मांस मानव बुद्धि व “ारीर दोनों के लिए हानिकारक है।
मैंने उनसे कहा कि वैज्ञानिकों का बौद्धिक स्तर सबसे ऊंचा होता है, “ाायद ही विष्व में कोई वैज्ञानिक ऐसा हो जो मांस न खाता हो। क्या उनकी बुद्धि को तामसी कहा जा सकता है ? बाद में उन्होंने इस विशय को पूर्वकृत कर्माें के परिणामों से जोड़कर चर्चा समाप्त कर दी। एक अन्य आर्य समाज के विद्वान ने ‘‘आतंकवाद, समस्या व समाधान’’ विशय पर बोलते हुए कहा कि आतंकवाद का प्रमुख कारण मांसाहार है। तामसी भोजन खाने से बुद्धि तामसी हो जाती है फिर मनुश्य को आतंक ही सूझता है। अगर विष्व में मांसाहार पर पाबंदी लगा दी जाए तो आतंकवाद की समस्या का समाधान हो सकता है। उनका इषारा तो एक विषेश क़ौम की तरफ़ था, मगर मांस तो विष्व की सभी क़ौमे खाती हैं।
वनस्पति वैज्ञानिक अनेक “ाोधों द्वारा इस अंतिम निश्कर्श पर पहुंच गए हैं कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाष’ में लिखा है कि मनुश्य, पषु व पेड़-पौधों आदि में जीव एक जैसा है जो कर्मानुसार एक योनि से दूसरी योनि में आता जाता रहता है। (9-75) इसलिए न तो केवल पषु-पक्षियों आदि को खाना महा पाप हुआ बल्कि पेड़-पौधों को खाना भी जघन्य अपराध हुआ।
पषु-पक्षियों को अगर ज़िब्ह किया जाए तो वे अपना विरोध प्रकट कर सकते हैं, मगर पैड़-पौधों से अधिक लाचार व बेबस और कौन होगा जो अपना विरोध तक प्रकट नहीं कर सकते ? उनको काटना व खाना तो और भी अधिक पाप होगा। तो क्या “ााक सब्जियों व फलों आदि को भी नहीं खाना चाहिए। अब अगर हम विज्ञान के सत्य को झुठला भी दें कि पेड़- पौधों में जीवन नहीं है तो क्या हम यह भी झुठला सकते हैं कि जिन “ााक-सब्जियों व फलों को हम खाते हैं उनको उत्पन्न करने में कितनी बड़ी संख्या में जीवों की हत्या होती है ?
एक आम के पेड़ पर लगने वाला कड़ी कीड़ा लाखों-करोड़ों की तादाद में होता है। ईख व ज्वार की फ़सल पर लगने वाला पाइरिल्ला एक हेक्टेयर खेत में अरबों-खरबों की तादाद में होता है। चने आदि की फ़सल को लगने वाली सूंडियां व गिडारें कुछ ही दिनों में पूरी फ़सल नश्ट कर देती हैं। असंख्य जीवों की हत्या कर किसान गोभी, बैगन, “ााक-सब्ज़ी उत्पन्न करता है। अनेक बीमारियों से बचने के लिए हम कीटनाषक दवाएं प्रयोग करते हैं। घरों में महिलाएं मक्खी, मच्छर, जूं व रसोई घर में रखे दाल, चावल, गेहूं आदि में पैदा होने वाले कीड़ों को मारने में कोई झिझक अथवा ग्लानि महसूस नहीं करती। क्या इन सब जीवों को मारना जीव हत्या के दायरे में नहीं आता ? क्या इन सबसे बचा जा सकता है ? क्या भैंस, गाय, बकरी आदि को मारने ही को जीव हत्या कहते हैं?
यह भी विचारणीय है कि हिंदू संगठन केवल गो-हत्या का विरोध करते हैं, जबकि ऊंट, भैंस, बकरा, मछली आदि भी गाय जैसे ही जीव हैं। यह भी विचारणीय है कि एक तरफ़ तो जीव को आदि अमर व अजर बतलाते हैं दूसरी तरफ जीव हत्या की बात करते हैं। यह भी विचारणीय है कि एक तरफ़ तो कर्मानुसार फल भोग की बात करते हैं दूसरी तरफ जीव हत्या को पाप व जघन्य अपराध की संज्ञा देते हैं। अफ़सोस इस बात का है कि धर्मषास्त्र व विज्ञान दोनों की अनुमति के बावजूद भी इस विशय को विवाद का विशय बनाया गया व बनाया जा रहा है और कुछ मांस खाने वाले हिंदू भाई भी रुग्ण मानसिकता का षिकार होकर मांसाहार का विरोध कर रहे हैं।
हमारे एक साथी जो मांसाहार का पुरजोर विरोध करते हैं, बारह ज्योति-लिंगों के दर्षन हेतु भारत भ्रमण पर निकले। वापसी होने पर यात्रा के सभी पहलुओं पर विस्तार से चर्चा हुई। चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि दक्षिण भारत के लोग उत्तरी भारत की अपेक्षा अधिक धार्मिक प्रवृत्ति के हैं। मैंने उनसे पूछा कि दक्षिण भारत के लोग मांसाहारी होते हैं और आपके अनुसार मांस खाना पाप व अधार्मिक कृत्य है तो फिर वे लोग धार्मिक कहाँ, पापी हैं। उन्होंने अपनी बात बड़ी करते हुए कहा कि दक्षिणी भारत की भौगोलिक परिस्थितियां ही कुछ ऐसी हैं कि वहां मांस खाने को पाप नहीं कहा जा सकता। ये विचार किसी आम व्यक्ति के नहीं बल्कि वर्ग विषेश में अपनी एक खास पहचान रखने वाले व्यक्ति के हैं।
अनेक बीमारियों की दवाएं ऐसी हैं जिनको अनेक पषु-पक्षियों के अंषों से बनाया जाता है। कुछ खास बीमारियां जैसे - सांस, क्षयरोग आदि में चिकित्सक बकरा, मछली व पक्षियों आदि का मांस खाने की सलाह देते हैं। किसानों की अत्याधिक मांग पर उत्तर प्रदेष सरकार ने नील गाय को नील घोड़ा नाम देकर मारने के “ाासनादेष जारी किए हैं, ताकि वे किसानों की खड़ी व पकी फ़सल को बरबाद न करें। चूहांे से फसल को बचाने के लिए सरकार गीदड़ों की व्यवस्था करती है। भारत के कई राज्यों जैसे तमिलनाडु, पष्चिमी बंगाल व उत्तराखण्ड आदि में गैर-मुस्लिम समाज में बलि की प्रथा प्रचलित है जो बड़ी निर्दयता व निर्भयता से की जाती है। नेपाल में वीरगंज के समीप गढ़ी माई मंदिर में हर वर्श करीब 200000 (दो लाख) पषुओं की बलि दी जाती है। नाहन (सिरमौर) गिरिपार में माघी के दिन हर वर्श हजारों बकरों की बलि दी जाती है। झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री मधुकोडा की पत्नी गीता कोडा ने रांची के रजप्पा मंदिर में 11 बकरों की बलि दी (अमर उजाला, 7.11.2009)।
यह भी विचारणीय है कि जो पषु-पक्षी खाने में इस्तेमाल किए जाते हैं उनकी संख्या में कोई कमी नहीं देखी जा रही है। संख्या के एतबार से देखा जाए तो मछली विष्व में सबसे अधिक खाई जाती है मगर मछली का उत्पादन बढ़ता ही जा रहा है। कुछ जीव जैसे “ोर, हाथी आदि खाने में इस्तेमाल नहीं होते, उनकी संख्या दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। यह भी विचारणीय है कि विष्व में बहुत से देष ऐसे हैं जो केवल पूरी तरह मांसाहार पर ही निर्भर हैं। ग्रीन लैंड और उत्तरी अमेरिका में समुद्र तटों पर बसने वाली जाति स्कीमों की रोटी, कपड़ा और मकान आदि मानव जीवन की मूलभूत आवष्यकताओं की पूर्ति समुद्री जीवों द्वारा ही होती है। उनका जीवन पूर्णतः मांस पर ही निर्भर है।
यह भी विचारणीय है कि नन्हीं-सी चींटीं व मकड़ी मांसाहारी होती है, जबकि विषालकाय हाथी व ऊँट मांसाहारी नहीं होते। बहुत से मध्यम ऊँचाई के पेड़-पौधे मांसाहारी होते हैं, जबकि विषालकाय वट व पीपल वृक्ष मांसाहारी नहीं होते। बगुले को केला व सेब और छिपकली को हम दाल व चावल खाना नहीं खिला सकते। अगर हमें विष्वास है कि कोई सृश्टिकर्ता है तो यह उसी की व्यवस्था है। पृथ्वी पर कोई भी जीव अथवा पौधा मनुश्य जाति का मोहताज नहीं है। पीपल, तुलसी, चींटी, बंदर व गाय आदि मनुश्य की वजह से जीवित नहीं हैं, मगर मनुश्य इन सबके बिना जीवित नहीं रह सकता। सभी जीव-जन्तु व पेड़-पौधे मनुश्य जाति की आवष्यकता है। वास्तविकता भी यह है कि सृश्टिकर्ता ने इन सबको पैदा ही मनुश्य जाति के उपयोग के लिए किया है।
स्वामी जी ने मांसाहारी मनुश्यों को इतना अधिक मलेच्छ, अछूत, घृणित व पापी माना है कि उनके संग करने मात्र से आर्यों को भी मांस खाने का पाप लगने की सम्भावना व “ांका व्यक्त की है, तो क्या मांसाहारी मनुश्यों का संग करने से बचा जा सकता है ? दूसरी बात बिना जीव हत्या के गेहूं, “ााक-सब्जी व फल आदि को पैदा नहीं किया जा सकता, अगर हम कीटनाषक दवाओं का इस्तेमाल न भी करें फिर भी खेत जोतने-खोदने में ही असंख्य जीवों की हत्या होती है, तो क्या बिना गेहूं, “ााक-सब्जी व फल आदि खाये बिना मनुश्य जिन्दा रह सकता है ? क्या ये आदर्ष व सिद्धान्त तार्किक व व्यावहारिक हैं?
स्वामी जी ने मनुश्य, पषु व पेड़-पौधों में जीव एक जैसा बताया है, फिर तो स्वामी जी के मतानुसार पेड़-पौधों को न केवल खाना बल्कि काटना भी पाप व अपराध हुआ, क्योंकि जिन पेड़-पौधों को हम काट रहे हैं, हो सकता है उनमें हमारे ही किसी सगे-संबंधियों की आत्मा विद्यमान हो।
स्वामी जी की दोनों बातें वेद विरूद्ध तो है हीं, अव्यावहारिक व अतार्किक भी हैं। मांस खाना धर्म “ाास्त्र व चिकित्सा विज्ञान दोनों की दृश्टि से मानव के लिए लाभकारी भी है और मानव की प्रकृति के अनुकूल भी। यह अलग विशय है कि किस पषु-पक्षी का मांस खाया जाए और किसका न खाया जाए तथा किस विधि से काटा जाए। दूसरी बात मानव, पषु व पेड़- पौधों में जीव भी एक जैसा नहीं है, मानव की जीवात्मा कर्म करने में स्वतंत्र व ईष्वर के प्रति जवाबदेह है, जबकि पषु व पेड़-पौधे आदि स्वभाव से बंधे हैं, न उन्हें अच्छे-बुरे का ज्ञान है और न ही किसी प्रकार की कोई स्वतंत्रता।