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अहिंसा परमो धर्मः ?
‘योग सूत्र’ के प्रणेता महर्शि पतंजलि ने योग के आठ अंगों का वर्णन किया है। योग का पहला अंग ‘यम’ है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच को योग दर्षन में ‘यम’ कहा गया है।
‘अहिंसा सत्या स्तेय ब्रह्मचर्या परिग्रहा यमाः।’
(योग दर्षन, 2-30)
जैन मत में उक्त पाँचों को व्रत कहा गया है। अहिंसा जैन मत का मुख्य तत्व है। यहाँ अहिंसा का मतलब किसी प्राणी को बिना किसी उद्देष्य के नुकसान न पहुंचाना है। निश्प्रयोजन किसी प्राणी की हत्या करना या चोट पहुंचाना यहाँ तक कि क्लेष पहुंचाना एवं आत्मभाव पर आघात करना हिंसा है। निश्प्रयोजन किसी पेड़ की टहनियाँ तोड़ना भी हिंसा के अन्तर्गत आता है। मगर कुछ पंथों के प्रणेताओं ने हिंसा की मनमानी व्याख्या की है। ‘‘अहिंसा परमो धर्मः’ का नारा देने वालों का कहना है कि किसी भी प्रकार की हिंसा पाप है चाहे वह प्रयोजनीय हो या निश्प्रयोजनीय। उक्त नारे का मूल निहितार्थ मांस भक्षण को निशिद्ध व पाप ठहराना था। जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी के बाद महात्मा बुद्ध ने भी अहिंसा का उपदेष दिया।
गौतम बुद्ध का जन्म एक क्षत्रीय परिवार में 563 ई0पू0 लुम्बिनी नामक स्थान पर हुआ था। लुम्बिनी कपिलवस्तु के पड़ोस में है। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ श्रेश्ठतर जीवन मूल्यों की तलाष में 29 वर्श की आयु में घर से निकल गए। 6 वर्श तक सच्चाई की तलाष में भटकते हुए एक दिन उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ और वे सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बन गए। गौतम बुद्ध के बाद भारतीय चिंतन में एक तूफ़ान-सा आ गया था, क्योंकि गौतम बुद्ध का सीधा टकराव वैदिक ब्राह्मणों से था।
वैदिक ब्राह्मण यज्ञ को प्रथम और उत्तम वैदिक संस्कार समझते थे। यह आर्यों का मुख्य धार्मिक कृत्य था। पषु बलि यज्ञ का मुख्य अंग थी। पषु बलि को बहुत ही पुण्य का कर्तव्य समझा जाता था। गौतम बुद्ध ने जब देखा कि आर्य लोग यज्ञ में निरीह पषुओं की बलि चढ़ाते हैं, तो यह देखकर उनका हृदय विद्रोह से भर उठा। आर्य धर्म के विरूद्ध उठने वाली क्रांति का प्रमुख कारण वैदिक पुरोहितवाद और हिंसा पूर्ण कर्मकांड ही था।
ईसा से करीब 500 वर्श पहले गौतम बुद्ध ने वैदिक धर्म पर जो सबसे बड़ा आरोप लगाया था वह यह था कि, ‘‘पषु बलि का पुण्य कार्य और पापों के प्रायष्चित से क्या संबंध ? पषु बलि धर्माचरण नहीं जघन्य पाप व अपराध है ?’’
यह एक विडंबना ही है कि गौतम बुद्ध के करीब 2350 वर्श बाद आर्य समाज के संस्थापक, वेदों के प्रकांड पंडित स्वामी दयानंद सरस्वती ने इस्लाम पर जो सबसे बड़ा आरोप लगाया है वह यह है कि ‘‘यदि अल्लाह प्राणी मात्र के लिए दया रखता है तो पषु बलि का विधान क्यों कर धर्म-सम्मत हो सकता है ? पषु बलि धर्माचरण नहीं जघन्य पाप व अपराध है।’’ कैसी अजीब विडंबना है कि जो सवाल गौतम बुद्ध ने वैदिक ऋशियों से किया था, वही सवाल करीब 2350 वर्श बाद एक वैदिक महर्शि मुसलमानों से करता है। जो आरोप गौतम बुद्ध ने आर्य धर्म पर लगाया था, वही आरोप कई “ाताब्दियों बाद एक आर्य विद्वान इस्लाम पर लगाता है।
धर्म का संपादन मनुश्य द्वारा नहीं होता। धर्म सृश्टिकर्ता का विधान होता है। धर्म का मूल स्रोत आदमी नहीं, यह अति प्राकृतिक सत्ता है। यह भी विडंबना ही है कि गौतम बुद्ध ने ईष्वर के अस्तित्व का इंकार करके वैदिक धर्म को आरोपित किया था, मगर स्वामी दयानंद सरस्वती ने ईष्वर के अस्तित्व का इकरार करके इस्लाम को आरोपित किया है।
प्राचीन भारतीय समाज में पषु बलि के साथ-साथ नर बलि की भी एक सामान्य प्रक्रिया थी। यज्ञ-याग का समर्थन करने वाले वैदिक ग्रंथ इस बात के साक्षी हैं कि न केवल पषु बलि बल्कि नर बलि की प्रथा भी एक ठोस इतिहास का परिच्छेद है। यज्ञों में आदमियों, घोड़ों, बैलों, मेंढ़ों और बकरियों की बलि दी जाती थी। रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी मुख्य पुस्तक ‘‘संस्कृति के चार अध्याय’’ में लिखा है कि यज्ञ का सार पहले मनुश्य में था, फिर वह अष्व में चला गया, फिर गो में, फिर भेड़ में, फिर अजा में, इसके बाद यज्ञ में प्रतीकात्मक रूप में नारियल-चावल, जौ आदि का प्रयोग होने लगा। आज भी हिंदुओं के कुछ संप्रदाय पषु बलि में विष्वास रखते हैं।
वेदों के बाद अगर हम रामायण काल की बात करें तो यह तथ्य निर्विवाद रूप से सत्य है कि श्री राम षिकार खेलते थे। जब रावण द्वारा सीता का हरण किया गया, उस समय श्री राम हिरन का षिकार खेलने गए हुए थे। उक्त तथ्य के साथ इस तथ्य में भी कोई विवाद नहीं है कि श्रीमद्भागवतगीता के उपदेषक श्री कृश्ण की मृत्यु षिकार खेलते हुए हुई थी। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि क्या उक्त दोनों महापुरुश हिंसा की परिभाशा नहीं जानते थे ? क्या उनकी धारणाओं में जीव हत्या जघन्य पाप व अपराध नहीं थी ? क्या षिकार खेलना उनका मन बहलावा मात्र था ?
अगर हम उक्त सवाल पर विचार करते हुए यह मान लें कि पषु बलि और मांस भक्षण का विधान धर्मसम्मत नहीं हो सकता, क्योंकि ईष्वर अत्यंत दयालु और कृपालु है, तो फिर यहाँ यह सवाल भी पैदा हो जाता है कि जानवर, पषु, पक्षी आदि जीव हत्या और मांस भक्षण क्यों करते हैं। अगर अल्लाह की दयालुता का प्रमाण यही है कि वह जीव हत्या और मांस भक्षण की इजाजत कभी नहीं दे सकता तो फिर “ोर, बगुला, चमगादड़, छिपकली, मकड़ी, चींटी आदि जीवहत्या कर मांस क्यों खाते हैं ? क्या “ोर, चमगादड़ आदि ईष्वर की रचना नहीं है ?
“ोर को जंगल का राजा कहा जाता है, वह जानवरों पर इतनी बेदर्दी और बेरहमी से हमला करता है कि जानवर दहाड़ मारने लगता है। मांसाहारी चमगादड़ों की एक बस्ती में लगभग 2 करोड़ तक चमगादड़ें होती हैं। अगर चमगादड़ की एक बस्ती के एक रात के भोजन का अनुमान लगाये तो 2 करोड़ की एक बस्ती एक रात में करीब 2500 कुंतल कीड़ों, कीटों आदि को चट कर जाती हैं। अगर इन कीड़ों, कीटों की तादाद का अनुमान लगाया जाए तो यह तादाद करीब 1000 करोड़ से अधिक होती है। यह तो एक मामूली-सा उदाहरण मात्र है, यह दुनिया बहुत बड़ी है और इस जमीनी दुनिया से कहीं अधिक विस्तृत और विषाल तो समुद्री दुनिया है जहाँ एक जीव पूर्ण रूप से दूसरे जीव पर निर्भर है।
विष्व के मांस संबंधी आंकड़ों पर अगर हम एक सरसरी नज़र डालें तो आंकड़े बताते हैं कि प्रतिदिन 8 करोड़ मुर्गियां, 22 लाख सुअर, 13 लाख भेड़-बकरियां, 7 लाख गाय, करोड़ों मछलियां और अन्य पषु-पक्षी मनुश्य का लुकमा बन जाते हैं। कई देष तो ऐसे हैं जो पूर्ण रूप से मांस पर ही निर्भर हैं। अब अगर मांस भक्षण को पाप व अपराध मान लिया जाए तो न केवल मनुश्य का जीवन बल्कि सृश्टि का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। जीव-हत्या को पाप मानकर तो हम खेती-बाड़ी का काम भी नहीं कर सकते, क्योंकि खेत जोतने और काटने में तो बहुत अधिक जीव-हत्या होती है।
विज्ञान के अनुसार पषु-पक्षियों की भांति पेड़-पौधों में भी जीवन ;स्पमिद्ध है। अब जो लोग मांस भक्षण को पाप समझते हैं, क्या उनको इतनी-सी बात समझ में नहीं आती कि जब पेड़-पौधों में भी जीवन है तो फिर उनका भक्षण जीव-हत्या क्यों नहीं है? फिर मांस खाने और वनस्पति खाने में अंतर ही क्या है ? यहाँ अगर जीवन (स्पमि) और जीव (ैवनस) में भेद न माना जाए तो फिर मनुश्य भी पषु-पक्षी और पेड़-पौधों की श्रेणी में आ जाता है। जीव केवल मनुश्य में है इसलिए ही वह अन्यों से भिन्न और उत्तम है।
विज्ञान के अनुसार मनुश्य के एक बार के वीर्य (डंसम हमदमतंजपवद सिनपक) स्राव (क्पेबींतहम) में 2 करोड़ “ाुक्राणुओं (ैचमतउे) की हत्या होती है। मनुश्य जीवन में एक बार नहीं, बल्कि सैकड़ों बार वीर्य स्राव करता है। फिर मनुश्य भी एक नहीं करोड़ों हैं। अब अगर यह मान लिया जाए कि प्रत्येक “ाुक्राणु (ैचमतउ) एक जीव है, तो इससे बड़ी तादाद में जीव हत्या और कहां हो सकती है ? करोड़ों-अरबों जीव-हत्या करके एक बच्चा पैदा होता है। अब क्या जीव-हत्या और ‘‘अहिंसा परमों धर्मः’’ की धारणा तार्किक और विज्ञान सम्मत हो सकती है।
जहाँ-जहाँ जीवन है वहाँ-वहाँ जीव (ैवनस) हो यह ज़रूरी नहीं। वृद्धि-हृास, विकास जीवन (स्पमि) के लक्षण हैं जीव के नहीं। आत्मा वहीं है जहाँ कर्म भोग है और कर्म भोग वही हैं जहाँ विवेक (ॅपेकवउ) है। पषु आदि में विवेक नहीं है, अतः वहां आत्मा नहीं है। आत्मा नहीं है तो कर्म फल भोग भी नहीं है। आत्मा एक व्यक्तिगत अस्तित्व (प्दकपअपकनंस म्गपेजमदबम) है जबकि जीवन एक विष्वगत अस्तित्व (ब्वेउपब म्गपेजमदबम) है। पषु और वनस्पतियों में कोई व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं होता। अतः उसकी हत्या को जीव हत्या नहीं कहा जा सकता। जब पषु आदि में जीव (ैवनस) ही नहीं है, तो जीव-हत्या कैसी ? पषु आदि में सिर्फ और सिर्फ जीवन है, जीव नहीं। अतः पषु-पक्षी आदि के प्रयोजन हेतु उपयोग को हिंसा नहीं कहा जा सकता।
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