Wednesday, September 15, 2010

दाह संस्कारः कितना उचित?

‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी दयानंद सरस्वती ने एक प्रश्न की समीक्षा में लिखा है कि मुर्दे को गाड़ने से संसार की बड़ी हानि होती है, क्योंकि वह सड़कर वायु को दुर्गन्धमय कर रोग फैला देता है। स्वामी जी आगे लिखते हैं कि मुर्दों को गाड़ने से अधिक भूमि खराब होती है। कब्रों को देखने से भय भी होता है, इसलिए गाड़ना आदि सर्वथा निषिद्ध है। लिखा है कि मुर्दों को सबसे बुरा गाड़ना है, उससे कुछ थोड़ा बुरा जल में डालना है, उससे कुछ एक थोड़ा बुरा जंगल में छोड़ना है और जो जलाना है वह सर्वोत्तम है, क्योंकि उसके सब पदार्थ अणु होकर वायु में उड़ जाते हैं। किसी ने स्वामी जी से कहा कि जिससे प्रीति हो उसको जलाना अच्छी बात नहीं है। गाड़ना तो ऐसा है जैसा उसको सुला देना है। इसलिए गाड़ना अच्छा है। स्वामी जी कहते हैं कि जो मृतक से प्रीति करते हो तो अपने घर में क्यों नहीं रखते ? और गाड़ते भी क्यों हो ? जिस जीवात्मा से प्रीति थी वह तो निकल गया, अब दुर्गन्धमय मिट्टी से क्या प्रीति? जो प्रीति करते हों तो उसको पृथ्वी में क्यों गाड़ते हो, क्योंकि किसी से कोई कहे कि तुझको भूमि में गाड़ देवे तो वह सुनकर प्रसन्न कभी नहीं होता। (13-40, 41, 42)

एक सामान्य व्यवहार की बात है कि अगर बस्ती के पास कोई बदबूदार गंदगी या कोई जानवर जैसे चूहा, बिल्ली, कुत्ता आदि मरा पड़ा हो तो बदबू से बचने के लिए बस्ती के लोग उसे मिट्टी में दबा देते हैं ताकि बदबू फैलकर मनुष्यों को प्रभावित न करें। मनुष्य की अंतरात्मा कभी यह गवारा न करेगी कि किसी मृत जानवर को जलाया जाए। अगर कोई व्यक्ति किसी मृत जानवर को जलाएगा तो उसे अवश्य घिन आएगी। दूसरी यह बात भी सामान्य सी है कि जब किसी वस्तु आदि को जलाया जाता है तो उससे अवश्य वायु प्रदूषित होती है। मृत मनुष्यों को जलाना तो वस्तु आदि के जलाने से कहीं अधिक हानिकारक और ख़तरनाक है क्योंकि मृत मनुष्य को जलाने से न केवल वायु प्रदूषित होती है बल्कि रोगजनित गैसे भी निकलती हैं, जिनका प्रभाव मानव जीवन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अवश्य पड़ता है। तीसरा एक मानवीय पहलू यह भी है कि जिस व्यक्ति के साथ हमने जीवन गुजारा है, जो हमारी आदरणीय माँ, बाप, प्रिय पत्नी, पुत्र व पुत्री आदि है, मरने के बाद उसे अपनी आँखों के सामने, अपने ही हाथों से आग में रखना व उसकी हड्डियों तक को भस्मीभूत कर देना कहाँ की मानवता है ?

क्या यह क्रिया दिल दहला देने वाली नहीं है ? इस विषय से जुड़ा एक अनैतिक व अमानवीय पहलू यह भी देखने में आता है कि जब किसी लाश को जलाया जाता है तो कफ़न पहले जलता है और लाश नंगी हो जाती है। यह वाकिया मानवता को ‘शर्मसार करने वाला होता है। लाश अगर माँ अथवा औरत की हो तो इससे अधिक निर्लज्जता की बात क्या कोई और हो सकती है?

स्वामी दयानंद सरस्वती ने दाह संस्कार की जो विधि बताई है वह विधि दफ़नाने की अपेक्षा कहीं अधिक महंगी है। जैसा कि स्वामी जी ने लिखा है कि मुर्दे के दाह संस्कार में ‘शरीर के वज़न के बराबर घी, उसमें एक सेर में रत्ती भर कस्तूरी, माशा भर केसर, कम से कम आधा मन चन्दन, अगर, तगर, कपूर आदि और पलाश आदि की लकड़ी प्रयोग करनी चाहिए। मृत दरिद्र भी हो तो भी बीस सेर से कम घी चिता में न डाले। (13-40,41,42)

स्वामी दयानंद सरस्वती के दाह संस्कार में जो सामग्री उपयोग में लाई गई वह इस प्रकार थी - घी 4 मन यानी 149 कि.ग्रा., चंदन 2 मन यानि 75 कि.ग्रा., कपूर 5 सेर यानी 4.67 कि.ग्रा., केसर 1 सेर यानि 933 ग्राम, कस्तूरी 2 तोला यानि 23.32 ग्राम, लकड़ी 10 मन यानि 373 कि.ग्रा. आदि। (आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक, ‘‘महर्षि दयानंद का जीवन चरित्र’’ से) उक्त सामग्री से सिद्ध होता है कि दाह संस्कार की क्रिया कितनी महंगी है। गरीब परिवार का कोई व्यक्ति इस क्रिया को निर्धारित सामग्री के साथ नहीं कर सकता। आज के भौतिकवादी दौर में उपरोक्त किसी भी सामग्री का ‘शुद्ध और स्वच्छ मिलना भी न केवल मुश्किल बल्कि असम्भव है। अतः दाह संस्कार की विधि निर्धारित नियमों व मानकों के आधार पर करना अव्यावहारिक है। दाह संस्कार में मुर्दे के वजन के बराबर घी का सिद्धांत यानी किसी व्यक्ति के दाह संस्कार में 9-10 कनस्तर घी का इस्तेमाल क्या बेतुका-सा नहीं लगता?

यहाँ एक बात यह भी विचारणीय है कि हिंदू समाज में बच्चों, साधु-संन्यासियों को और कुछ वर्गों में आम व्यक्तियों को दफ़न किया जाता है। जब जलाना सर्वोत्तम है तो फिर सर्वोत्तम विधि से बच्चों और साधु-संतों का अंतिम संस्कार क्यों नहीं किया जाता? एक ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि आर्य अपने मुर्दों को दफ़न करते थे, जलाते न थे। माह सितम्बर 2005 में, मेरठ के सिनौली स्थान पर 5 प्राचीनकालीन ‘शवधियाँ मिली थी, जिनमें मानव कंकाल सुरक्षित हालत में प्राप्त हुए थे। सभी ‘शवधियाँ एक विशिष्ट दिक्स्थापन (सिर उत्तर दिशा में और पैर दक्षिण दिशा में) पैर सीधे और मुंह को बांयी बगल की ओर करके लिटाई गई थी। यह एक सबूत इस बात का है कि प्राचीन लोग भारत में अपने मुर्दों को दफ़न करते थे।

हिंदू धर्म-दर्शन की यह धारणा कि मनुष्य का ‘शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है, मृत्युपरांत पंच तत्वों में विलीन किया जाना चाहिए। अगर इस धारणा को सही माना जाए तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मृत्युपरांत दाह संस्कार की विधि मानव ‘शरीर को पंच तत्वों में विलीन करने की उचित विधि नहीं है। पंच तत्वों में विलीन करने की उचित विधि केवल दफ़नाना ही है।

अग्नि द्वारा किए जाने वाले अंतिम संस्कार में अनेक रुढ़ियाँ व अनावश्यक अनुष्ठान होने के कारण यह क्रिया अत्यंत जटिल और लम्बी है। ये अनुष्ठान भी सार्वभौमिक नहीं है। अपने-अपने क्षेत्रीय, वर्गीय और जातीय रीति-रिवाज के अनुसार लोग अपने मुर्दों का दाह संस्कार करते हैं। अब तो हिंदू समाज में दाह संस्कार की नई-नई तकनीक आ गई हैं। रुपयों-पैसों की भाग-दौड़ में रिश्ते-नातों का महत्व कम हो गया है। लगता है हमारी मानवीय संवदेना मर सी गई है। अब घी, चंदन और केसर की जगह एल.पी.जी. (घरेलू गैस) और उच्च वोल्टेज की विद्युत ‘शक्ति का प्रयोग होने लगा है। इन आधुनिक ‘शवदाह गृहों में चंद मिनटों में काम तमाम। न घी, न चंदन, न कोई झंझट। क्या आधुनिक ‘शवदाह गृह इस बात का खुला प्रमाण नहीं है कि हमने अपनी सुविधानुसार अपने संस्कारों और जीवन मूल्यों को बदला है।

मुर्दे को दफ़न करना एक सार्वभौमिक सत्य है। यह क्रिया सस्ती भी है, आसान भी है और उत्तम भी। साथ-साथ मानवीय मूल्यों के अनुकूल भी है। कब्र को मुर्दे के वहाँ पहुंचने से पहले तैयार कर लिया जाता है। मृत को कब्र में ऐसे लिटा दिया जाता है मानो सुलाकर कमरा बंद कर दिया हो। अब मृत के साथ जो हो रहा है वह कम से कम हमारी आंखों के सामने और स्वयं हमारे द्वारा तो नहीं किया जा रहा है। दफ़नाने में मानवीय मूल्यों का पूरा-पूरा लिहाज़ रखा जाता है। अब रही बात प्रदूषण की तो उचित रूप से दफ़नाए जाने पर वायु प्रदूषण ‘शून्य प्रतिशत होगा। आज विज्ञान का युग है। ‘शोध द्वारा भी हम यह जान सकते हैं कि जलाने और दफ़नाने में कौन-सी विधि प्रदूषण रहित, उत्तम, सस्ती और आसान है। स्वामी जी का यह तर्क कि मुर्दों को दफ़नाने में भूमि अधिक खराब होती है, कोई बौद्धिक और व्यावहारिक तर्क नहीं है। विश्व में ईसाई, यहूदी, मुसलमान, कम्युनिस्ट यानी करीब 85 प्रतिशत लोग अपने मुर्दों को दफ़न करते हैं। पृथ्वी इतनी विशाल है कि मानव जाति कभी उसका पूर्ण प्रयोग न कर सकेगी। दफ़नाने की विधि आज भी ज्यों की ज्यों है जबकि जलाने की विधि बदलती जा रही है।

मृत व्यक्ति को जलाना इसलिए भी उचित नहीं है, क्योंकि अगर किसी व्यक्ति की जानबूझकर किसी “शडयंत्र के तहत हत्या की गई है तो न्यायिक प्रक्रिया में हत्या के साधनों और कारणों को जानना अति आवश्यक है। हत्या के बाद मृत को तुरन्त जलाकर हत्या संबंधी सबूत छिप जाते हैं और अपराधी पर हत्या का केस कमजोर पड़ जाता है। आए दिन सुनने और पढ़ने में आता है कि बहू अथवा किसी अन्य को जलाकर, जहर देकर अथवा गला घोंटकर मार दिया जाता है और लाश को जलाकर अतिशीघ्र ठिकाने लगा दिया जाता है ताकि हत्या के साधनों को छिपाकर कानून से बचा जा सके। इससे न्यायिक प्रक्रिया भी प्रभावित होती है और मृत के संबंधियों को न्याय मिलने की सम्भावना भी कम रह जाती है। दफ़न करने की स्थिति में हत्या संबंधी जांच कई दिन बाद तक की जा सकती है।

स्वामी जी ने अपनी समीक्षा में जिस तथ्य पर अधिक ज़ोर दिया है वह यह है कि मुर्दे को गाड़ने से वायु प्रदूषित होती है, जलाने से वायु प्रदूषित नहीं होती। यह कितना अजीब और बचकाना तर्क है? कोई बताए कि वह कौन-सा विज्ञान है जो कहता है कि जलाने से वायू प्रदूषित नहीं होती ? मुर्दे को जलाने में जो कनस्तरों घी, केसर, कस्तूरी, चंदन आदि सामग्री के इस्तेमाल का उपदेश और आदेश स्वामी जी ने दिया है, क्या यह इसलिए नहीं है कि उक्त सामग्री के साथ जलने से मुर्दे की दुर्गन्ध हमें महसूस न हो? वरना इतनी कीमती सामग्री के साथ मुर्दे को जलाने का आखिर औचित्य क्या है ? स्वामी जी का दूसरा तथ्य यह है कि मुर्दे को जलाने से उसके सब पदार्थ अणु बनकर वायु में उड़ जाते हैं। कोई बताए कि मुर्दे के अणु आसमान में उड़कर कहाँ चले जाते हैं ?

स्वामी जी ने अपनी समीक्षा में जो तीसरा तथ्य प्रस्तुत किया है वह यह है कि किसी से कोई कहे कि तुझको भूमि में गाड़ देवें तो यह सुनकर वह प्रसन्न कभी नहीं होता। (यहाँ यह स्पष्ट नहीं है कि उक्त बात मृत से कही जा रही है या जीवित से)। उक्त बात कितनी बेतुकी और हास्यास्पद है ? क्या कोई यह कहने से खुश होता है कि आ तुझे जला दें ? स्वामी जी का चैथा तथ्य यह है कि मुर्दे के मुंह, आंख और ‘शरीर पर धूल, पत्थर, ईंट, चूना डालना, छाती पर पत्थर रखना कौन-सा प्रीति का काम है ? कोई बताए कि मुर्दे की छाती पर कौन ईंट पत्थर रखता है ? क्या स्वामी जी इतना भी नहीं जानते थे कि मृत व्यक्ति को दफ़न किस प्रकार किया जाता है। छाती पर लक्कड़ तो मृत व्यक्ति को जलाने में रखे जाते हैं न कि दफ़न करने में। किसी वेद विद्वान द्वारा क्या खूब बुद्धि और विवेक का इस्तेमाल किया गया है। स्वामी जी द्वारा पांचवी बात जो कही गई है वह यह कि मुर्दे को गाड़ने से बेहतर जंगल में छोड़ देना है। क्या यह बावलेपन की बात नहीं है? क्या उक्त बातों से यह सिद्ध नहीं होता कि हमें बस सच्चाई की जिद है। हमें हर हाल में सच्चाई का विरोध ही करना है, नतीजा कुछ भी हो। स्वामी जी ने छठी बात जो कही गई है कि कब्रों को देखने से भय भी होता है। कोई बताए कि मुर्दा किसी का क्या बिगाड़ सकता है ?
ऐसा प्रतीत होता है कि किसी संदेशवाहक की पारलौकिक धारणा की जिद और विरोध में किसी समुदाय विशेष द्वारा जलाने के तरीके को अपनाया गया होगा। बाद में यह तरीका उस समुदाय की मान्यता और परंपरा बन गई होगी। दाह संस्कार धर्म विरूद्ध, विज्ञान विरूद्ध और मानवीय मूल्यों के खि़लाफ़ है। अंत में मैं एक सवाल भी वेद विद्वानों से करूंगा कि कृपया वे बताए कि ‘मनुस्मृति’ के रचयिता महर्षि मनु की लाश को उनके अनुयायियों द्वारा जलाया गया था या दफ़न किया गया था?

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